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इस्लाम में रस्म-रिवाज (कल्चर) का मुक़ाम


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अलहमदुलिल्लाह

बुनियादी उसूल यह है कि इस्लाम में किसी भी तरह के रस्म रिवाज की इजाज़त है और तब तक इजाज़त है जब तक वह शरिअत के किसी अहकाम से टकराये ना।

۩ अनस रज़िअल्लाहु तआला अन्हु रिवायत करते है कि जब नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हुक्मरानों को खत लिखने का इरादा किया तो आप ﷺ से कहा गया कि वह लोग कोई खत उस वक्त तक कुबूल नहीं करते जब तक उसपर मोहर ना हो, चुनांचे नबी ﷺ ने चांदी की अंगुठी बनवाई। इस अंगुठी पर “मुहम्मद रसूल अल्लाह” खुद्रा हुआ (stamped) था।

सहीह अल बुखारी, किताब अल जिहाद ﴾56﴿, हदीस-2938.

۩ حَدَّثَنَا قُتَيْبَةُ حَدَّثَنَا أَبُو عَوَانَةَ، عَنْ أَبِي بِشْرٍ، عَنْ نَافِعٍ، عَنِ ابْنِ عُمَرَ، أَنَّ النَّبِيَّ صلى الله عليه وسلم اتَّخَذَ خَاتَمًا مِنْ فِضَّةٍ، فَكَانَ يَخْتِمُ بِهِ وَلا يَلْبَسُهُ -

इब्ने उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा फरमाते है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पास एक चांदी की अंगुठी थी, वह इससे खुतुत (letters) वगैराह पर मुहर लगाते थे लेकिन इसे पहनते नहीं थे।

इमाम तिर्मिज़ी की शमाईल मुहम्मदीया, बाब रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की मुबारक अंगुठी, हदीस-83.

बुखारी की इस हदीस से हमारे अहले इल्म यह नतीजा निकालते है कि किसी भी रस्म-रिवाज की पैरवी करने की इजाज़त है क्योंकि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दुसरे मुल्क की मोहर लगाने वाली रस्म को बे-झिझक अपनाया था। और किसी रस्म-रिवाज कीर इजाज़त तब तक ही है जब तक वह रस्म शरिअत के किसी अहकाम से ना टकराये।

۩ शैख अल-साअदी [d.1376 a.h.] फरमाते है:

“रस्म-रिवाज का बुनियादी उसूल यह है कि इसकी इजाज़त है, जब तक कि किसी शरिअत (के अहकाम) में इसको मना ना किया हो (यानी शरिअत के किसी अहकाम से टकराये ना)।”

रिसाला फी उसूल अल-फिक़ह (7).

शैख इब्ने उसैमीन से पूछा गया, “नमाज़ ईद के बाद मुसाफा करने, गले मिलने और मुबारकबाद देने का क्या हुक्म है?”

तो शैख का जबवा था:

“इन चीज़ों में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि लोग उसे बतौर ईबादत और अल्लाह तआला का कुर्ब समझ कर नहीं करते है, बल्कि लोग यह बतौर रिवाज (custom) और इज़्ज़त ओ इकराम और एहतराम करते है, और जब तक शरिअत में किसी रस्म-रिवाज की मुमानियत (मनाहीं) ना आये तो बुनियादी उसूल यह है कि उस चीज़ की इजाज़त होती है।”

मजमुअ फतावा इब्ने उसैमीन, 16/208-210.

۞ रस्म ए शादी/निकाह का हुक्म:

अगर शादी की रस्म-रिवाज की बात करे तो हर इलाके की शादी अपने रस्म-रिवाज के ऐतबार से करी जाती है। इस्लाम ने इसमें कोई पाबंदी नहीं रखी है, और इसमें भी वही उसूल को ध्यान में रख कर रस्म की पैरवी करने की इजाज़त है कि जिस रस्म की पैरवी हो रही हो, वह शरिअत से टकराती ना हो, जैसे ग़ैर-महरम का आपस में मिलना जुलना या हराम मौसिक़ी (music) का इस्तमाल करना वगैराह, मिसाल के तौर पर मेंहदी की रस्म जो हमारे मुआशरे में होती है, इसमें कोई हर्ज नहीं है जब तक मेंहदी की रस्म के दौरान कोई शरिअत के खिलाफ काम ना हो, और इसी तरह दुसरी रस्म का भी यही हुक्म है।

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