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इस्लाह और हमारा रवैया


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अल्लाह तआला ने इंसान को अक्ल से नवाज़ा है!

जब किसी दुनियावी या दीनी मुआमले को समझने के लिए इंसान अपनी अक्ल इस्तमाल करता है तो उसमें इख्तलाफ पैदा होना फितरी (natural) है! और यह बात दीनी और दुनियावी दोनों तौर पर होता है।

हमें यह सोचना चाहिए कि हम पर हक़ अल्लाह की तरफ से नाज़िल नहीं होता है कि उसमें कोई गलती का इमकान (possibility) ना हो बल्कि हम इंसान है, हम तहकीक करते है, बाज़ औकात हम सहीह नतिजे पर पहुंचते है और बाज़ औकात हमसे गलतीयां भी हो जाती है। बड़े-बड़े सहाबाओं से गलती हुई है, मिसाल के तौर पर उमर रज़िअल्लाहु तआला अन्हु को रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को यह समझना कि उनपर मौत नहीं आयी है फिर बाद में अबु बक़र रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने उन्हें कुरआन का हवाला देकर समझाया तब उन्होंने यह बात तसलीम की कि हुज़ुर वफात पा चुके है। इस वाक़िये की तफसीर की लिंक आर्टिकल के कमेन्ट बाॅक्स में शेयर कर दे रहा हूं।

हमारे बड़े-बड़े ईमामों से भी गलतियां हुई है, असल में हमें यह समझना चाहिए कि हम इंसान है पैग़म्बर नहीं, नबुवत हमपर खतम नहीं हो रही है, जिनपर खतम होनी थी हो चुकी है। लेकिन हमारे यहां तो हर बन्दा पैगम्बर है, हम अपनी राय को इस तरह पेश करते है कि हमपर बराहेरास्त वहीह आई हुई है।

इंसान के अखलाक और किरदार का असल इम्तेहान ही यह है कि वह इस इख्तिलाफ को कैसे बरदाश्त करता है और अपने से अलग राय रखने वालों के लिए वह कैसा रवैया इख्तियार करता है! बदकिस्मती से हमारे मुआशरे में लोगों को इख्तिलाफ बरदाश्त करने की तालीम नहीं दी जाती! जिस माहोल, जिस फिर्के, जिस मज़हब, जिन रिवायतों में हम पले-बड़े होते है हम उसके खिलाफ एक लफ्ज़ सुनना भी बरदाश्त नहीं करते! हम सिर्फ अपने मज़हब, अपने फिर्के, अपनी रिवायात को ही दुरूस्त समझते है!

यही वह रवैया है जिसकी कुरआन जगह-जगह मुखालिफत करता है!

अल्लाह पाक कुरआन में फरमाते है,

और उनसे जब कभी कहा जाता है कि अल्लाह तआला की उतारी हुई किताब की तरफ आव, तो वह जवाब देते है कि हम तो उसी तरीके की पैरवी करेंगे जिसपर हमने अपने बाद-दादाओं को पाया है, गोया उनके बाद दादा बे-इल्म हो और हिदायत-याफ्ता भी ना हो। 

सुरह बक़रा, आयत नं. 170

और जब कोई हमसे इख्तिलाफ करता है, कोई सवाल करता है तो उसका जवाब शायिस्तगी (नर्मी) से देने की बजाए हम उसकी निय्यत उसके इल्म पर हमलावर हो जाते है! उसकी पर्सनल ज़िन्दगी को निशाना बनाना शुरू कर देते है, उसके मज़हब को बुरा-भला कहने लग जाते है! यह मान लेते है कि वह गुमराह हो गये है, यह मान लेते है कि फलां शख्स को हिदायत नहीं मिल सकती और उसको जहन्नम की बशारत देने लग जाते है! हमारा रवैया एक दारोगा का होता है कि किसी तरह तमाम इंसानों से अपनी बात मनावा ले। हम लोगों को अपनी बात की कायल नहीं करना चाहते बल्कि उसे उनपर थौपना चाहते है! हम सवालों से बहुत जल्दी घबरा जाते है और जज़्बाती हो ते है!

अगर ग़ौर करे तो इस रवय्ये से लोग अपनकी बात की क़ायल तो नहीं होंगे बल्कि अपसे चिढ़ ज़रूर जाएंगे। कोई बात अगर ढंग से बताने पर वह आपकी बात मान भी लेगा लेकिन आपकी इस रवय्ये से नहीं मानेंगे और उसकी एक वजह आप भी होंगे!

इसकी एक वजह यह भी है कि हम मान लेते है कि सिर्फ हम ही सहीह है और बाकि सब ग़लत है!

हमारा रवैया एक तालिब ए इल्म (student) का होना चाहिए! हमे हमेशा मुआमलों को दलील की रोशनी में समझना चाहिए। हमें खुद अपने अंदर सवाल करने की आदत को ज़िन्दा रखना चाहिए। बात करने के दौरान किसी की निय्यत पर नहीं जाना चाहिए। किसी को कोई चीज़ नहीं पता हो तो उसे ताना नहीं देना चाहिए कि तुम्हें तो इतनी बुनियादी बात भी नहीं पता। अपने इल्म की शोखी नहीं बग़ारनी चाहिए। अपने मौकिफ (viewpoint) के बारे में हमेशा इस मक़ाम पर खड़ा रहना चाहिए कि मैं एक इंसान हूं और मैं फलां बात को पूरी इमानदारी से समझने की कोशिश की है और उसके बाद मैंने इस राय को अपनाया है। मुमकिन है कि मुझसे समझने में गलती हो गई हो! अगर आप दलील की बिना पर मेरी गलती वाज़ेह कर दे तो मैं ग़ौर और फिक्र के बाद अपनी राय बदल लुंगा। अगर किसी बात पर गुफ्तगु करने के बाद में इख्तिलाफ बाकी रहे तो ऐसा क्यों नहीं हो सकता कि हम इख्तिलाफ के बाद भी एक दुसरे से अच्छा और नर्मी से पेश आये जैसे सहाबा का तर्ज़ ए अमल होता था कि वह बड़े-बड़े इख्तिलाफ के बावजुद आपस मं प्यार मुहब्बत से रहते थे! हमें सहाबाओं की सीरत पढ़ने की ख़ास ज़रूरत है ताकि हम आदाब ए इख्तिलाफ सीख सके उनसे।

एक अहम बात यह भी है कि जब इल्म की बात हो तो जज़्बात को थोड़ी देर के लिए साईड में रख देना चाहिए क्योंकि इल्म के मैदान में जज़्बात की कोई जगह नहीं होती!

आज के साइंस के दौर में आप सिर्फ जज़्बात की बिना पर किसी को अपनी बात का कायल नहीं कर सकते! आज आपसे सवाल किया जाएगा, आपके मज़हब के बारे में, आपकी रिवायात के बारे में, एक-दो नहीं बल्कि 100 सवाल किये जाएंगे और अगर आप दीन की दावत लेकर उठे है तो आपको उनको माकुल जवाब देने ही होंगे वह भी नर्मी के साथ, आदाब के साथ देने होंगे। आप इससे भाग नहीं सकते। हमारा रवैया यह नहीं होना चाहिए कि हम किसी शख्स को किसी तरह ज़लील या बे-इज़्ज़त या लाजवाब कर दे!

बल्कि हमारा मकसद लोगों तक अपनी बात को आदाब से पहुंचा देना है! किसी शख्स को सिर्फ चुप करने की निय्यत या उसे ज़लील कर देने की निय्यत दिल से निकाल बाहर फेकिये! इससे ना उसका फायदा होगा और ना ही आपका! बल्कि उससे यह कहना चाहिए कि देखें बात यह है कि मैं भी तुम्हारी तरह इल्म का मुसाफिर हूं, मेरे इल्म में एक नयी बात आयी है और यह मुझे बहुत अपील करती है। तुम भी इसपर ग़ौर कर लो। आइये मिलकर इसपर ग़ौर करते है।

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