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तहज्जुद पढ़ने के लिए सोना ज़रूरी (शर्त) नही


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सवाल: क्या तहज्जुद पढ़ने के लिए सोना जरूरी है, यानी क्या सोना ज़रूरी है?

अल्हम्दुलिल्लाह..

हमारे मुआशरे में ये ग़लत-फ़हमी है कि तहज्जुद की नमाज़ पढ़ने के लिए सोना ज़रूरी है। किताब या सुन्नत में ऐसी कोई बात हमें नहीं मिलती है। अलबत्ता तहज्जुद की नमाज को रात के आखिरी दिन में पढ़ना अफजल जरूर है क्योंकि हमारा वक्त फरिश्ते इस नमाज का मुशाहिदाह करता है। लेकिन जिसको डर है कि वो रात के आखिरी हिस्से में ना उठेगा तो उसे सोने से पहले ही ये नमाज पढ़नी चाहिए।

۩ जाबिर र.अ. रिवायत करते हैं कि रसूलअल्लाह ﷺ ने फरमाया, “जिसे डर हो के वो रात के आखिरी हिससे में नहीं उठ सकेगा, वो रात के शुरू में वित्र पढ़ ले।

और जिसकी उम्मीद हो कि वो रात के आखिर में उठ जाएगा, वो रात के आखिरी में वित्र पढ़े क्योंकि रात के आखिरी दिन नमाज का मुशाहिदा किया जाता है और ये अफज़ल है।”

सही मुस्लिम, किताब सलात उल मुसाफिरीन ﴾ ६ ﴿, हदीस- १७६६

नोट: वित्र और तहज्जुद एक ही नमाज के दो नाम हैं, (दलील के लिए ये लेख पढ़ें)। तो इस लेख में अगर वित्र का जि़क्र होगा तो इसमें मुराद तहज्जुद नमाज को भी लिया जाएगा।

۞ आइए देखते हैं कि इस हदीस पर सहाबा ए कराम ने किस तरह अमल कर दिखाया:

۩ जाबिर बिन अब्दुल्ला र.अ. ने कहा, “रसूलल्लाह ﷺ ने अबू बक्र र.अ. से पूछा, 'तुम वित्र कब पढ़ते हो?' अन्होने कहा, 'शुरू रात में, ईशा के बाद'।

आप ﷺ पूछें, 'तुम ऐ उमर'!

अन्होंने कहा, 'रात के आखिरी हिस्से में',

तब नबी ﷺ ने फरमाया, 'ऐ अबू बक्र! तुमने मज़बूत कड़ा पकड़ा है। और ऐ उमर! तुमने ताक़त ज़ब्त कर ली है।''

सुनन इब्न माजा, किताब इकामातिस सलात वा सुन्नती फीहा ﴾५﴿, हदीस- १२०२

۩ अबू हुरैरा र.अ. रिवायत करते हैं, "मुझे मेरे अज़ीज़ दोस्त (नबी करीम ﷺ) ने तीन चीज़ों की वसीयत की है और मैं चीज़ों को मौत से पहले नहीं छोड़ूंगा, हर महीने में तीन दिन रोज़, चाश्त की नमाज़ और वित्र पढ़ कर सोना।"

सहीह अल बुखारी, किताब अल तहज्जुद ﴾१९﴿, हदीस- ११७८ हसन (दारुस्सलाम).

۩ इमाम नवावी फ़रमाते हैं,

"और यही सही है, और बाक़ी मुतलक़ अहादीस को इस सही और सारी अफ़ज़ालियात पर महमूल (इस हदीस पर अमल) किया जाएगा, उनमें ये हदीस भी है, 'मेरे अज़ीज़ दोस्त ने मुझे वसीयत की के साथ वित्र अदा कर के सोया करू" '. ये हदीस उस शख़्स के हक़ में है जिसके (सोने के बाद) जागने का यकीन नहीं है।” [ख़त्म]।

शरह साहिह मुस्लिम, ३/२७७.

हमारे सहाबा ए करकराम ने भी कोई एक रास्ता नहीं चुना, जो रास्ता जिन्हे बेहतर लगा उनको वो अपनाए। ये खुद एक दलील है कि दीन में सखती नहीं है, बाल्की दीन आसान है।

अल्लाह हमे तहज्जुद पढ़ने की तौफीक अता क्रे। आमीन.