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क्या उल्टी आने से रोज़ा टूट जाता है


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बुनियादी उसूल ये है कि अगर किसी शक्स ने जान बुझ कर उल्टी (काय) करी तो उसका रोजा टूट जाएगा और उस पर इस दिन की कजा में रोजा रखना लाजिम है। लेकिन अगर उल्टी उस पर गालिब आ जाती है और उसके इख्तियार के बिना (अंजाने में) हो जाती है तो उसका रोजा सही है और उस पर कोई कफ़्फ़ारा नहीं होगा। इसकी दलील ये है:

۞ किसी भी वजह से जान-बुझ कर उल्टी करना:

इसमें ये शामिल है: जानबूझ कर अपनी उंगली को अपने मुंह में डाल कर, या अपने पालतू जानवर को दबा कर, या जान-बुज कर गंदी महक सूंघ कर, या उल्टी लाने वाली चीज जो लगतार देखते रहने से उल्टी करी। तो उसका रोज़ा टूट गया और उस पर इसकी कज़ा लाज़िम है।

मदन बिन तलहा रिवायत करते हैं कि अबू दरदा र.अ. ने मुझसे कहा कि रसूलअल्लाह ﷺ को उल्टी आई और उनका रोजा तोड़ दिया।

सुनन अबू दाऊद, हदीस-२३८१। जामिया तिर्मिज़ी, हदीस-८७. शेख ज़ुबैर अली ज़ई (तिर्मिज़ी) द्वारा हसन के रूप में और शेख अल्बानी (अबू दाऊद) द्वारा साहिह के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

नोट: क्या बात पर इज्मा भी है.

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۞ खुद के इख्तियार के बगैर (अनजाने में) उलटी आना

इसके मुतल्लिक हमें रसूलअल्लाह से तो कोई हदीस नहीं मिलती लेकिन हमें सहीह अल बुखारी में अबू हुरैरा र.अ. का क़्वाल मिलता है:

इमाम बुखारी रह. फरमाते हैं,

وَقَالَ لِي يَحْيَى بْنُ صَالِحٍ حَدَّثَنَا مُعَاوِيَةُ بْنُ سَلاَّمٍ، حَدَّثَنَا يَحْيَى، عَنْ عُمَرَ بْنِ الْحَكَمِ بْنِ ثَوْبَانَ، سَمِعَ أَبَا هُرَيْرَةَ ـ رضى الله عنه ـ إِذَا قَاءَ فَلاَ يُفْطِرُ، إِنَّمَا يُخْرِجُ وَلاَ يُولِجُ‏.‏ وَيُذْكَرُ عَنْ أَبِي هُرَيْرَةَ أَنَّهُ يُفْطِرُ‏.‏ وَالأَوَّلُ أَصَحُّ‏.

"अबू हुरैरा र.ए. ने फरमाया के जब कोई उल्टी करे तो इस का रोजा नहीं टूटता क्योंकि हमसे बाहर निकलता है कुछ मुश्किल नहीं होता। अबू हुरैरा ही से मनकुल है के इस का रोजा जाता रहता है। लेकिन पहली बात (यानी रोजा नहीं टूट ता) ही सही है।”

साहिह अल बुखारी, किताब अल सौम, अध्याय के तहत: सौम (उपवास) में कपिंग और उल्टी, बाब संख्या: ३२।

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सुनन अबू दाऊद (हदीस-२३८०) और सुनन तिर्मिज़ी (७२०) में अबू हुरैरा र.अ. से एक रिवायत मिलती है कि वो कहता है कि रसूलअल्लाह ﷺ ने फरमाया कि जिसका खुद-बखुद उल्टी जाए तो हमें पर कजा नहीं लेकिन अगर जो जांबुज कर उल्टी करे तो वो रोजा कजा करे।

लेकिन ये हदीस ज़ैफ़ है क्योंकि इस हदीस का एक रावी 'हिशाम बिन हसन' मुदलिस है और वो 'अन' से रिवायत कर रहा है, और समा की तश्री मौजूद नहीं है। और मुहद्दिसो का ये बुन्यादी उसूल है कि मुदल्लिस की 'अन' वाली रिवायत ज़ैफ़ होती है जब तक समा की तशरी ना हो जाए। शेख ज़ुबैर अली ज़ई ने भी इस रिवायत को ज़ैफ़ करार दिया है।

और अल्लाह सबसे बेहतर जानता है।