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इल्म की पहली मंज़िल


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मैं जब लोगों को देखता हूं, मश्रिक-मग़रिब में उनसे मिलता हूं तो मुझे यह महसूस होता है कि इनकी ज़्यादा दिलचस्पी का बाईस इल्मी मुबाहिसा (ilmi debates) बन कर रह गई है।
यह अपनी जगह बड़ी कीमती चीज़ है लेकिन जब हम क़यामत में अपने रब की बारगाह में उठाये जाएंगे तो सवालात इसके मुताअल्लिक नहीं होंगे यानी अल्लाह तआला यह नहीं पूछेंगे कि (अच्छा तुम) यह बताव तुम मेराज को जिस्मानी मानते थे या रूहानी, यह नहीं पूछेंगे कि बताव कुरआन मजीद की फुलां आयत से तुमने यह मतलब निकाला था या वह मतलब समझा था।
वहां जो चीज़ ज़ेर ए बहस आने वाली है दीन में असलन उसपर निगाह रहनी चाहिए। यह सब इल्म को हासिल करने की चीज़ें है। इससे इंसान ताअस्सुबात को खत्म करता है। उसके इल्म में इज़ाफा होता है। नयी-नयी दुनियाएं दर्याफ्त करता है। इसको एक क़ल्बी इत्मिनान हासिल होता है।

यह बड़ी क़ीमती चीज़ है। इल्म का सफर कोई मामुली सफर नहीं है। लेकिन असल चीज़ जिसके ऊपर निगाह रहनी चाहिए वह यह है कि मैं अपनी ज़ात में, अपनी शख्सियत में पाकीज़गी का सफर तय कर रहा हूं या नहीं। यह सवाल हर वक्त सामने रहना चाहिए। यह मैं थोड़ी देर बाद बताउंगा कि पाकीज़गी से कुरआन क्या मूराद लेता है।

 क्योंकि कुरआन मजीद से यही मालूम होता है कि अल्लाह तआला ने जिस इम्तिहान में हमको मुब्तिला किया है, इस इम्तिहान में हदफ (aim, goal) की कैफियत यही है कि हम कितना पाकीज़ा हो कर उसकी बारगाह में जाते है।
मैं आगे चलकर वज़ाहत करूंगा कि पाकीज़गी से मूराद क्या है। लेकिन इस वक्त जिस चीज़ की तरफ असल में तवज्जो दिलानी मक़सूद है वह यह है कि इस हदफ  को कभी निगाह से ओझल नहीं होना चाहिए।

इल्मी बहस (debates) करे, चीज़ों को समझे, नयी-नीय पहलु सामने आये, उनसे फाइदा उठाइये। इनमें से कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसको ग़लत कहा जा सके। लेकिन अगर यही तमाम चीज़े हदफ (मकसद) होकर रह गई है तो यह समझले कि दीन महज़ इल्म नहीं है वह असलन एक बड़ी मंज़िल है जिसकी तरफ हमारे रहनुमाई करने के लिए नाज़िल किया गया है। और जैसा कि मैंने बताया है कि वह तज़किया (purification of oneself) है और यह कुरआन ए मजीद ने बिल्कुल वाज़ेह बता दिया कि:

قَدۡ اَفۡلَحَ مَنۡ تَزَكّٰىۙ‏

“जिसने अपने आपको पाकीज़ा कर लिया, वही फलाह पाएगा”

कुरआन, 87ः14.

 और पाकीज़गी के लिए अल्लाह ने पूरा अमल भी बता दिया है कि हमें क्या करना चाहिए। मैं इस पर भी गुफ्तगु करूंगा आगे चल कर।

इसमें चूंकि इल्म से बात शुरू हुई है तो अगर आप खालिस नस्ब-उल-एैन (मकसद) के हवाले से देखें तो जो “रवय्या” इससे वजूद में आता है वह है जिसके बारे में हम क़यामत में जवाब-देह होंगे। यानी नतीजा (result of our research) नहीं बल्कि वह रवय्या (attitude) जो हमने इख्तियार किया। इल्म का तज़किया (purification) भी उसी तरह मतलूब (ज़रूरत) है जिस तरह अमल का तज़किया मतलूब है।

 लेकिन इल्म के तज़किये में हदफ (aim) क्या है?

यानी हमारा "Attitude towards knowledge"  क्या है?

यानी हमने इल्म के मुआमले में रवय्या क्या इख्तियार किया है?

क्या हमने अपने आपको ताअस्सुबात (बदगुमानी या बिना-तहकीक के नतिजे पर पहूंचना) से पाक करने की कोशिश की है? देखें मैंने लफ्ज़ बोला पाक करना यही तज़किया है।

क्या हम अब भी जज़बात में बेह जाते है?

क्या अब भी हम उसी जगह पर खड़े है कि पहले अगर एक शख्स की अक़ीदत (अंधी तकलीद  ; blind-following) में मुब्तिला थे तो अब किसी दुसरे शख्स की अक़ीदत में मुब्तिला हो गये है? क्या कुरआन और सुन्नत से अगर कोई बात साबित हो जाती हे तो क्या फिर भी हम यह देखते है कि हमोर उलमा या मुहद्दिस की राय क्या है? क्या अपने उलमा और मुहद्दिस को हम कुरआन और सुन्नत से ज्यादा तरजिह देते है?

यह वह जायज़ा है जो हम में से हर शख्स को हर वक्त लेते रहना चाहिए यानी अगर आपने कोई नयी तहतीक़ जान ली या कोई नयी राय मालूम कर ली तो इससे आप फाइदा उठायेंगे। तो वह आपको इत्मिनान ए क़ल्ब देगी लेकिन जिस चीज़ के लिए आप अल्लाह तआला के हुज़ूर जवाब-देह हैं वह यह कि जब यह चीज़ आपके सामने आई या इससे मुख्तलिफ कोई चीज़ आपके सामने आई तो आपने रवय्या क्या इख्तिया किया?

तो जिस चीज़ की इस्लाह इल्म की दुनिया में भी पेश ए नज़र रहनी चाहिए वह यह है कि हम हर तरह के ताअस्सुबात, हर तरह के जज़्बात, अक़ीदतों से बाला‘तर (अलग) होकर चीज़ों को समझने की तरबीयत कर ले। यानी इस दीन की राह में तरबीयत का पहला मरहला यही है कि हमारा मक़सद यही हो कि हम अपना जायज़ा लेते रहे।

हर रात जब हम बिस्तर पर जाए तो सोने से पहले एक बार खुद से पूछें कि क्या वाक़ई हम ताअस्सुबात (बद-गुमानी, अपने से अलग राय रखने वाले के लिए बद-गुमानी) से बाला‘तर हो गये है? और इसमें हमेशा यह चीज़ पेशेनज़र रखें कि ताअस्सुब एक ऐसी बिमारी है कि यह बाज़ औक़ात आदमी को एहसास भी नहीं होता कि यह इसको लाहक़ हो चुकी है (लग गई है)। खुद को जज़्बात के हवाले कर देना, इंसान की ऐसी कमज़ोरी है कि बड़े से बड़े आदमी को यह अंदाज़ा नहीं होता कि वह इस कमज़ोरी में मुब्तिला हो चुका है। तो अपना postmortem करते रहना चाहिए, यानी जायज़ा लेते रहना चाहिए कि:

क्या इस इल्म के सफर में वाक़ई अब हम खालिस दलील की बुनियाद पर चीज़ों को समझते है?
अगर कोई हमारे मानी हुई राय से मुख्तलिफ चीज़ की तरफ हमें बुलाये तो हमारा response ग़ैर ताअस्सुबाना होता है?
क्या हम आज भी पूरी तवज्जो से उसकी बात सुनने के लिये आमादा हो जाते है?
क्या हमारे अंदर यह चीज़ मौजूद है कि अगर हमारी गलती हम पर वाज़ेह की जाएगी तो हम हक़ को मान लेंगे?
तो इसका जाइज़ा लेते रहना चाहिए।

यह पहली चीज़ है जो मैं आपकी खिदमत में अर्ज़ करना चाहता था कि जब आप इल्म का सफर करें तो आम तौर परा इंसान नताइज फिक्र (conclusion of a research) मे मुब्तिला हो जाता है कि यह एक तहक़ीक़ हो गई, एक नुक़्ता-नज़र वाज़ेह हो गया। यह तहकीक का नतीजा बहुत बड़ी बात है। मैं इसकी नफी नहीं कर रहा लेकिन मिसाल के तौर पर बड़ी जिद्दो-जहद के बावजूद आपकी तहकीक ग़लत हो गई तो यह सज़ा का ज़रिया नहीं बनेगा।

असल चीज़ यह है कि ग़लत नुक़्ता ए नज़र के मुआमले में भी आपका रवय्या क्या रहा?
यानी यह ग़लती क्या ताअस्सुब की वजह से हुई?
या यह ग़लती जज़्बात में मुब्तिला होने की वजह से हुई?
या यह ग़लती किसी की अक़ीदत (blind-following) की वजह से हुई?
या यह ग़लती इंसान की फितरी कमज़ोरियां जो है उसके लिहाज़ से हुई?

तो जो शुरू की चीज़ें जो हैं वह क़ाबिल-ए-मुआफी नहीं है लेकिन आखरी चीज़ क़ाबिल ए मुआफी है। इसका पूरी तरह एहसास भी होना चाहिए और इसपर हर लेहज़ा सोचते भी रहना चाहिए।
मैं इसकी ज़रूरत इस ज़माने में बहुत ज़्यादा महसूस करने लगा हूं क्योंकि मैंने यह देखा है कि यह चीज़ हमारी उम्मत में बहुत आम होती जा रही है।
एक चीज़ वह जिसकी तरफ मैंने इशारा किया वह नताइज फिक्र निकालने में ही शब-ओ-रोज़ मशरूफ रहते है और दुसरी यह कि इससे एक खास तरह का एहसास-ए-बालातरी (खुद को दुसरे से बातातर समझना) इनकी गुफ्तगु में, इनकी बात-चित में, लब्ब-ओ-लेहजा में आना शुरू हो जाता है। यानी इनके लहजे में, बात चीत मं (इल्म का) घमंड झलकना शुरू हो जाता है।

इन दोनों से खुदा की पनाह मांगनी चाहिए। अल्लाह तआला को सबसे ज़्यादा जो चीज़ नापसंद है वह आप जानते है कि वह घमंड है और घमंड या तकब्बुर के बारे में फरमाया गया है कि ऊंट सुई के नाके में दाखिल हो सकता है, लेकिन कोई घमंड करने वाला शख्स जन्नत में दाखिल नहीं हो सकता। (कुरआन, 7ः40)

अपने अंदर सच्ची आजज़ी (humbleness) पैदा करना चाहिए और हमेशा सच्चे इल्म का मुसाफिर बन कर रहना चाहिए। इसमें खास तौर पर अपना तज़किया करते हुए एक उसूली बात को पल्ले बांध ले और वह यह है कि क्या किसी दर्जे में भी इबादत अल्लाह के सिवा किसी की ना हो और अक़ीदत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के सिवा किसी से ना हो। बाकी जो कुछ भी है वह ज़्यादा से ज़्यादा क्या है? जैसे आप अपने बड़े का, मुअल्लिम का एहतराम करते है।

अगर एहतराम अक़ीदत में बदलना शुरू हो जाए तो इसका मतलब यह है कि नफ्स आलूदा (impure) होना शुरू हो गया है। जहां से आप निकले थे अब वापिस वही जा रहे है, जिस सफर की आपने शुरूआत की थी। आप फिर वापिस वहीं लौट रहे है यह एक बड़ा यू-टर्न होगा, जिससे हर मुसलमान को हर सच्चे इल्म के मुसाफिर को अल्लाह की पनाह मांगनी चाहिए।

असल चीज़ जिसका क़यामत के हवाले से हमें अपने अंदर पैदा करना हे वह बे ताअस्सुबी है। वह इल्म की सच्ची तलब है। वह सहीह बात जानने के लिए ज़हनी तैयारी है। वह अक़ीदतों से हट कर चीज़ों (इल्‍म) को देखना है।

इसका एक लाज़मी तज़किया यह हे कि जहां कहीं भी इल्म पाया जाता है, असाप उससे इख्तिलाफ करे लेकिन कभी किसी साहब-ए-इल्म के बारे में बे-एहतरामी (disrespect) का रवय्या इख्तियार ना करें। सब की दिल से respect करे। यही हमारे सहाबा का तरीका था कि वह इख्तिलाफ करते थे लेकिन एक दुसरे की इज़्ज़त करते थे। वह इख्तिलाफ में एक दुसरे को गुस्ताख ए रसूल या मन्हजलेस, वग़ैराह नहीं कहते थे।

किसी शख्स के बारे में राय देते वक्त उसके महासिन (भलाईयों) को कभी नज़र अंदाज़ मत करें। आपने देखा होगा कि मैं अपने बाज़ जलील-उल-क़द्र बुर्ज़ुगों से, जिनके साये में मैंने शऊर की आंख खोली है, बड़ा शदीद इख्तिलाफ करता हूं लेकिन कभी उनकी अज़मत (respect) के मुआमले में मेरे यहां कोई बुरा तसव्वुर आपको नहीं मिलेगा। मैं उनकी बड़ी इज़्ज़त करता हूं और उनके महासिन (भलाईयों) पर लोगों को हमेशा तवज्जो दिलाता हूं और बतलाता हूं कि वह कैसे बड़े लोग थे और उनको अल्लाह तआला ने कैसा बहतरीन अखलाक़ अता किया था।

इल्म में ग़लती हो जाती है, उस ग़लती के बारे में हम गुफ्तगु करेंगे, इस्लाह भी करेंगे। इसलिए कि किसी की अज़मत आपको यहां तक ना लेजाये कि अहाप उनकी ग़लती की ताईद (defence) करने लग जाए और ग़लती पर तंक़ीद (criticize) यहां तक ना ले जाए कि आप उस शख्स का वाजिबी एहतराम करना भी छोड़ दे। यह चीज़ अगर पैदा हो जाए तो आपमें और बाकी लोगों में कोई फर्क नहीं रह जाएगा।

यह जितने इस वक्त फिर्के और गिरोह बने हुए है यह असल में वह चीज़ है जिसका लिहाज़ ना रखने से बने है। अगर इनके जो रहनुमा है, उलमा है वह हर मौक़े पर इनको यह तवज्जो दिलाते कि हम मुहम्मद रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पैरोकार (follower) है (ना ही, किसी बुज़ुर्ग या इमाम या मुहद्दिसीन के)। कोई अगर ग़लती से पाक हे तो वह अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम है, बाकी सारे के सारे उलमा, ख्वाह वह बड़े-बड़े आलीम हों वह इंसान है, इनसे ग़लती हो सकती है और खुद के बारे में भी यह यही कहते हे कि हम अपनी तहक़ीक़ आपको बता रहे है ओर खुद भी हम इल्म के सफर में हर लेहज़ा मशरूफ है।

कोई हक़ीक़त हम पर वाज़ेह हो जाएगी तो हम आपको बता देंगे, अगर कोई गलती समझ में आ जाएगी तो उसको सुधार लेंगे। आप पर अगर किसी दुसरे शख्स की बात ज़्यादा वाज़ेह हो जाए और अगर आप महसूस करे कि उसमें हक़ है तो आपको उसकी पैरवी करनी चाहिए। अललाह तआला ने किसी एक शख्स के साथ आपको नहीं बांधा है और यह बिल्कुल एक हक़ीक़त और एक वाक़िया है, जो हमारे बड़े बुज़ुर्ग है, जिनसे तारीख रोशन है, उनकी ज़िंदगी और अमल से मालूम हो जाता है कि उनमें से किसी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि वह 100% दुरूस्त है। यानी बा-हैसियत ए मजमूई (altogether) हम अहले इल्म की क़द्र भी करते है और उनसे कोई अच्छी बात होती है तो इसे अपनाते है, और अगर कोई बात कुरआन और सुन्नत के मुताबिक ना समझ आये तो उससे इख्तिलाफ भी करते है। तो यह वह रवय्या हे इसके लिए हम जवाब-देह है अल्लाह के यहां। यानी हमारा यही रवय्या होना चाहिए, यह सिरात-ए-मुस्तिक़ीम (सीधा रास्ता) है।

यह सिरात-ए-मुस्तिक़ीम है। इसपर हमको चलना है कि हम ताअस्सुब से बाला‘तर होकर ज़िन्दगी बसर करे। तो इल्म के मुआमले में मैं यह समझता हूं कि इसकी हमको बार-बार याद दिहानी करनी चाहिए। हम अपनी मजलिस में, अपनी study circle में, जहां कहीं बैठें, लोगों को हमेशा यह बताए कि यह इल्म का सफर है, यह आखरी नताइज का बयान नहीं है।
इसमें यह नहीं होनी चाहिए कि हमपर नबुव्वत खतम हो रही है, नबुव्वत खतम हो गई जिस पर होनी थी। हम सब के सब हुज़ूर सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की बात को समझने में मशरूफ हैं। और आईये आप भी साथ शामिल हो जाईये।

इसमें जब आप दुसरों के साथ बात करते है, तो आपका दावत का तरीका यह नहीं होना चाहिए कि अब यह हक़ हमपर नाज़िल हो गया है और हम इसकी खबर देने के लिए आये है। नहीं! बल्कि यह होना चाहिए कि जैसा एक सच्चा तालिब-ए-इल्म करता है कि देखों भाई बात यह है कि मैं भी तुम्हारी तरह इल्का का मुसाफिर हूं, मेरे इल्म में एक नयी बात आयी है, यह मुझे अपील करती है। तुम भी इस पर ग़ौर कर लो।
आईये मिलकर इसपर ग़ौर कर लेते है, मिल कर इसका मुतालाअ कर लेते है, मिलकर इसको देख लेते है। तो यह जो attitude और रवय्या है यह इल्म के तज़किये (purification) की पहली मंज़िल है इसका हमेशा ख्याल रखना चाहिए।

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