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रोज़े की निय्यत


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सवाल: बर्रे सग़ीर हिन्द व पाक में सहेर में रोज़े की निय्यत इस तरह की जाती है:
“ऐ अल्लाह मैं तेरे लिए यक़िनी रोज़े की नियत करता हूं मेरे अगले और पिछले गुनाह माफ फरमादे।”
और यह भी कहा जाता है .. “و بصوم غد نويت شهر” (मैं रमज़ान के कल के रोज़े की नियत करता हूं)
मुझे इसके मानी मुराद का इल्म नहीं, लेकिन क्या यह नियत करना सहीह है और अगर ऐसा करना सहीह है तो आप से गुज़ारिश है कि इसके मानी की वज़ाहत करे या फिर कुरआन व सुन्नत से सहीह निय्यत बताये।

अलहमदुलिल्लाह..

कोई भी ईबादत चाहे वह रोज़ा हो या नमाज़, निय्यत के बग़ैर सहीह नहीं है क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है, “आमाल का दार ओ मदार निय्यत पर है और हर शख्स के लिए वही है जो वह निय्यत करता है।”

सहीह अल बुखारी, किताब अल वही (1), हदीस-1

इब्ने कुदामाह रहमतुल्लाह अलैय कहते है,

“अगर रोज़ा रमज़ान में रखा जा रहा हे या रमज़ान के रोज़ों की क़ज़ा या फिर नज़र और कफ्फारे के फर्ज रोज़े रखे जा रहे है तो हमारे ईमाम (अहमद), मालिक और शाफई रहीमहुल्लाह के नज़दीक रात को ही नियत करना लाज़मी है, जबकि ईमाम अबु हनीफा कहते है कि रमज़ान के रोज़े हो या कोई और ईरादे के रोज़े, उनके लिए दिन में भी नियत करना काफी है।”

अल मुग़नी (3/109)

हदीस की रोशनी में ईमाम अहमद, मालिक और शाफई रहमतुल्लाह अलैय की राय ज़्यादा मज़बुत है।

۩ (उम्मुल मोमिनीन) हफसा रज़िअल्लाहु तआला अन्हां कहती है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम का फरमान है, “जो शख्स तुलु ए फजर से पहले रोज़े का ईरादा ना करे उसका रोज़ा नहीं है।”

۩ सुनन निसाई, किताब अल सियाम, हदीस 2334। इस हदीस को ईमाम इब्ने खुज़ेमाह और ईमाम इब्ने हिब्बान ने सहीह और मरफू करार दिया है। सुनन तिर्मिज़ी, हदीस-730.

सुनन निसाई की दुसरी हदीस के अलफाज़ यह है, “जिसने रात ही में रोज़े की निय्यत ना कर ली हो तो वह रोज़ा ना रखें।”

सुनन निसाई, किताब अल सियाम, हदीस -2336. (सहीह)

हदीस के मानी यह है कि जो रात को रोज़ा रखने का ईरादा और निय्यत ना करे उसका रोज़ा नहीं है, तो इसलिए रात को फजर से पहले निय्यत करनी चाहिए रोज़े की, बिल इत्तेफाक़ से अगर आंख ना भी खुल पायी सहरी के लिए तो हमारे रोज़े में फर्क नहीं पड़ेगा तो बेहतर यही होगा कि रात को निय्यत कर ली जाये।

۩ सुनन तिर्मिज़ी, हदीस 730 के तहत, ईमाम तिर्मिज़ी फरमाते है,

“इसका मानी अहले ईल्म के नज़दीक सिर्फ यह है कि उसका रोज़ा नहीं होता, जो रमज़ान में या रमज़ान की क़ज़ा में या नज़र के रोज़े में रोज़े की निय्यत तुलु ए फजर से पहले नहीं करता। अगर उसने रात में निय्यत नहीं की तो उसका रोज़ा नहीं हुआ, अलबत्ता नवाफिल रोज़े में उसके लिए सुबह हो जाने के बाद भी रोज़े की निय्यत करना मुबाह है। यही शाफई, अहमद और इशहाक बिन राहावायही का क़ौल है।”

۩ मुस्तक़िल फतावा कमेटी से सवाल कियागया कि इंसान को रमजान में रोज़े की निय्यत किस तरह करनी चाहिए?

तो जवाब था,

“रोज़े की निय्यत रोज़े का ईरादा करने से होती है और रमज़ान में हर रात को रोज़ा की निय्यत करना ज़रूरी है।”

फतावा अल-लजानाह अल दाईमाह, 10/216.

۩ कुछ अहले ईल्म कहते है:

“लगातार और दोहराये जाने वाली ईबादत के अमल में यह काफी है कि वह ईबादत के शुरू में ही निय्यत कर ले जब तक कि वह किसी वजह से उस अमल को करने से रूक जाए, (और अगर वह ऐसा करता है) तो उसे फिर से निय्यत करनी पड़ेगी। इस बुनियाद पर अगर इंसान रमज़ान के पहले दिन यह निय्यत करता है कि वह इस महीने के पूरे रोज़े रखेगा तो यह निय्यत उसके लिए पूरे महीने की तरफ से काफी है जब तक कि काई उज़र पेश ना आ जाए जिससे उसके जारी अमल में रूकावट आ जाए जेसे कि अगर वह रमज़ान के महीने के दौरान सफर पर चला जाए, तो जब वह वापस आएगा तो उसके ऊपर नये सिरे से रोज़े की निय्यत करना ज़रूरी होगा।”

देखे: अल-शरह अल-मुमतीअ, 6/369-370.

तो इससे पता चला कि अगर किसी शख्स ने रमज़ान के शुरू में ही निय्यत कर ली है मुक़म्मल रोज़े रखने की तो उसे हर रात निय्यत करने की ज़रूरत नहीं है।

और यह बात भी जान लिया जाए कि निय्यत का मतलब दिल का ईरादा होता है। हमारे मुआशरे में लोग निय्यत से मुराद ज़बान से निय्यत को बोलना समझते है। ऐसा नहीं है। निय्यत का ताअल्लुक दिल से है जो एक क़ल्बी अमल है। इसका ज़बान से कोई ताअल्लुक नहीं है। इसलिए मुसलमान को दिल से ईरादा करना चाहिए कि वह रोज़ा रखेगा। ऐसा नहीं है कि वह ज़बान से यह कहे कि “मैं रोज़े की निय्यत करता हूं” या इस तरह के दुसरे अलफाज़ जो लोगों ने ईजाद कर रखे है। यह सब दीन में नयी-नयी बाते है जिनसे हर मुसलमान को अल्लाह की पनाह मांगनी चाहिए क्योंकि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फमरया था कि दीन में नयी-नयी बाते ईजाद करने से बचाना (तिर्मिज़ी 2676)

तो सहीह तरीका यह है कि इंसान दिल से ईरादा करे कि वह रोज़ा रखेगा।

रोज़ा में निय्यत के अलफाज़ ना तो रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने अदा किया था ना ही सहाबा ने। इस अलफाज़ को बाद में ईजाद किया गया था।

वह अलफाज़ कुछ ऐसे है:

व बिस्सवमी ग़दीन नवयतु मिन शहरी रमज़ान
तर्जुमा: “मैं रमज़ान के कल के रोज़े की नियत करता हूं”

अब जिस शख्स ने भी यह दुआ बनायी हे उसको इतना भी नहीं पता था कि इस्लाम में दिन को अल्लाह केसे बदलता है। इस्लामिक शरीअत में रात पहले आती है और दिन बाद में, इसी लिए जब रमज़ान शुरू होता है तब हम तरावीह पहले पढ़ते है और रोज़ा बाद में रखते है। अरबी में गुज़रे हुए कल को “अल अम्स” कहते है, आज के दिन को “अल य़ौम” और आने वाले कल को “ग़दन” कहते है जो कि इस नियत के अलफाज़ में है। इस नियत के तर्जुमे के मुताबिक वह उस दिन की नहीं जिस दिन वह नियत के अलफाज़ बोलता है बल्कि वह उसके अगले दिन रोज़े रखने की नियत करता है। दीनी लिहाज़ से तो यह ग़लत है ही साथ में मग़रबी या दुनियावी लिहाज़ से भी ग़लत है क्योकि मग़रबी लिहाज़ से 12 बजे ही दिन बदल जाता हे और हम सेहरी 12 बजे के बाद खाते है। तो यह दीनी और दुनियावी दोनों लिहाज़ से ग़लत है।


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अल्लाह से दुआ है कि वह हमें हमारे रसूल के तरीके पर हर ईबादत करने की तौफीक दे और ग़ैर तरीकों से महफूज़ रखे। आमीन.