اقرأ باسم ربك الذي خلق

सहीह मुस्लिम का मुकद्दमाह


ro   -
ईमाम मुस्लिम ने अपनी किताब सहीह मुस्लिम लिखने से पहले लिखा है। यह उन्होंने इसलिए लिखा है ताकि कुछ बुनियादी उसूल ए हदीस लोगों को वाज़ेह हो जाये कि किस तरह की हदीसें मुहद्दिसीन ने कुबूल की है और किस तरह की नहीं। और उन मुहद्दिसीन ने कितनी मेहनत कर के सहीह और ग़ैर सहीह आहदीसों को अलग किया है क्योंकि अक्सर लोग उसूल ए हदीस से नावाक़िफ है। अक्सर लोगों को तो यह भी पता नहीं कि हदीस भी बहुत तरह की होती है। अल्लाह उन तमाम मुहद्दिसों को आखिरत में भी कामयाब करे जिस तरह वह दुनिया में कामयाब हुए थे, जिन्होंने इतनी मेहनत कर के रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के पैग़ाम को हमतक पहुंचाया है।

सहीह मुस्लिम का मुकद्दमा पढ़ते हुए आपको लगेगा कि आजकल जो हम बातें करते है, जो कुछ लोग कहते है कि हम लोग अजीब-ग़रीब बातें कर रहे है तो यह सारी बातें ईमाम मुस्लिम ने भी की है। इस मुकद्दमें ने बहुत लोगों की ज़िन्दगी तब्दील की है। ईमाम मुस्लिीम के शागिर्द ने ईमाम मुस्लिम को यह मश्वरा दिया था कि वह सहीह मुस्लिम लिखे और इसीलिए जगह-जगह इस मुकद्दमे में ईमाम मुस्लिम अपने शागिर्द को दुआएं देते है। अब मैं बिल्कुल ईमाम मुस्लिम के अल्फाज़ लिखता हूं जो उन्होंने कहा जो कि इतने प्यारे है कि आपके दिल में उतरते चले जाएगें इंशा अल्लाह। अगर ज़रूरत पड़ी तो उनके अल्फाज़ की वज़ाहत कर दुंगा इंशा अल्लाह। ईमाम मुस्लिम के अल्फाज़ ग्रीन टेकस्ट में होंगे और मेरे एक्सपलनेटरी नोट्स ब्रेकेट और ब्लेक टेक्स्ट में होंगे:

हम्द व सलावात के बाद ईमाम मुस्लिम अपने शागिर्द अबु इशाक़ को मुखातिब करते हुए फरमाते है: अल्लाह तुझ पर रहम फरमाये कि तुने अपने परवरदिगार की ही तौफीक से यह ज़िक्र किया था कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से जो आहदीस मरवी है उन तमाम हदीस की तलाश और जुस्तजु की जाये जो दीन के उसूल और उसके अहकाम जो सवाब व अज़ाब और रग़बत और ख़ौफ (यानी फज़ाईल व अख़लाक़) के मुताअल्लिक है और तुम वह तमाम आहदीस मुस्तनद अस्नाद के साथ चाहते हो जिनको उलमा ए हदीस ने कुबूल किया है। अल्लाह तआला तुमको हिदायत दे कि तुमने उस बात का इरादा ज़ाहिर किया है कि मैं इस किस्म की तमाम आहदीस का एक मजमुआ तैयार कर के इख्तिसार के साथ तुम्हारे लिये जमा करदुं। अल्लाह तआला तुम्हें इज्ज़त अता फरमाये जब मैंने तुम्हारी इस फरमाईश पर ग़ौर किया और जिसके अंजाम की तरफ तवज्जो की और अल्लाह करे इसका अंजाम अच्छा हो तो मुझे यह अंदाज़ा हुआ कि और लोगों से पहले खुद मुझे भी यह मजमुआ तैयार करने का फायदा होगा।

मज़बुती और सेहत के साथ थोड़ी सी आहदीस को याद रखना ज़्यादा आसान है खास तौर पर आवामुन्नास के लिये जिन्हें सहीह और ग़ैर सहीह आहदीस में तमीज़ हासिल ही नहीं हो सकती जबतक कि दुसरे लोग उनको बता ना दें। पस ऐसी सुरत ए हाल में थोड़ी तादाद में सहीह रिवायात जमा करने का इरादा करना बहुत ज़्यादा तादाद में रिवायात जमा करने से ज़्यादा बेहतर और मुफीद होगा।

(अब ईमाम मुस्लम कहते है कि किन लोगों से वह आहदीस नहीं लेंगे)

1. वह लोग जिन पर अक्सर मुहद्दिसीन ने तान किया है जैसा कि अब्दुल्लाह बिन मुस्वार, अबु जाफर मदिनी, अम्र बिन खालिद... वग़ैराह
2. उन जैसे दुसरे लोगों जिन पर आहदीस गढ़ने की तोहमत है।
3. और वह लोग जो अज़-खुद आहदीस बनाने में बदनाम हो चुके है।
4. और इसी तरह वह लोग भी जिनकी अक्सर आहदीस मुन्कर या गलत होती है तो ऐसे तमाम लोगों की रिवायात को हम अपनी किताब में जमा नहीं करेंगे।

उसूल ए हदीस की इस्तिलाह में मुन्कर उस शख्स की हदीस को कहते है जो सिक़ाह और क़ामिल उल हिफ्ज़ रावीयों की रिवायत के खि़लाफ रिवायत करें या उसकी आहदीस की किसी ने भी मुवाफिक़त ना की हो। पस जब ऐसी सुरत ए हाल हो तो वह रावी मतरूकुल हदीस होगा और इसकी आहदीस मुहद्दिसीन के नज़दीक क़ाबिल ए कुबूल और क़ाबिल ए अमल नहीं होगी।

इसी तरह अगर तुम किसी को देखों की वह ईमाम ज़ोहरी (बहुत बड़े मुहद्दिस और ताबई, ईमाम अबु हनीफा के उस्ताद) जैसे बुज़ुर्ग शख्स या ईमाम हिश्शम बिन उरवा जैसे अज़ीम शख्स, जिनकी रिवायात अहले इल्म के यहां बहुत मशहूर और फैली हुई है, (उन्हीं) से ऐसी रिवायात बयान करे जिस रिवायत को उनके मशहूर शागिर्दों में से किसी ने भी बयान ना किया हो और यह रावी सहीह रिवायात में उनके मशहूर शागिर्दों का शरीक भी ना रहा हो, तो ऐसे रावी की हदीस को कुबूल करना जायज़ नहीं।

हमने रिवायत हदीस के सिलसिले में मुहद्दिसीन के मज़हब को बयान कर दिया है ताकि जो लोग उसूल ए हदीस से वाक़िफ नहीं है, उनमें अहले तौफीक को इब्तिदाई मालुमात हासिल हो जाये।
ऐ शागिर्द ए अज़ीज़ , इन तमाम मज़कुरा बाला बातों के बाद अल्लाह तआला तुझ पर रहम करे, जब हमने ज़ईफ और मुन्कर आहदीस को अलग करने में उनलोगों की गलतीयों का जायज़ा लिया, जो खुद को मुहद्दिस करार देते है, तो देखा कि यह लोग सिर्फ सहीह और मशहूर आहदीस पर इत्तिफा करने की बजाये उन रावीयों से भी आहदीस नकल कर रहे है, जिनके बेवकूफ और ग़ैर मुस्तनद होने को यह खुद भी मानते है। अब जो लोग मजहूल और ज़ईफ इस्नाद के ज़रिये इन मुन्कर रिवायात को नक़ल कर के खामियों से नावाकिफ आवाम में फैला रहे है, तो हमारे दिल में यह अहसास पैदा हुआ कि ऐ शागिर्द ए अज़ीज़ हम तेरी (सहीह आहदीस को जमा करने की) फरमाईश को ज़रूर पुरा करे।
याद रखो! अल्लाह तुम्हें तौफीक दे यह बात अच्छी तरह ज़हन नशीन कर लो की हर एक मुहद्दिस जो सहीह और ग़ैर सहीह आहदीस की पहचान, और सिक़ाह और ग़ैर सिक़ाह रावीयों की मारिफत रखता है उसपर वाजिब है कि वह सिर्फ ऐसी आहदीस नक़ल करे जिनकी इस्नाद सहीह हो और उनके रावीयों में से कोई रावी भी झुटा, बिदअती और सुन्नत की मुखालिफत करने वाला ना हो, या उस रावी का एैब फाश ना हुआ हो, और हमारे इस क़ौल की दलील ऐसी है कि कोई भी इसका मुखालिफ नहीं है और वह है:

ऐ ईमान वालों अगर तुम्हारे पास कोई फासिक़ (शख्स) खबर लाये तो खूब तहकीक कर लिया करों (ऐसा ना हो) कि तुम किसी क़ौम को ला-इल्मी में (ना-हक़) तकलीफ पहुंचा बैठों, फिर तुम अपने किये पर पछताते रह जाव। 
सुरह अल हुजरात, आयत नंबर 6.

याद रखों मुहद्दिसीन के नज़दीक फासिक़ की रिवायत उसी तरह मरदूद है जिस तरह कि आम लोगों के नज़दीक उसकी गवाही ग़ैर मक़बूल है। कुरआन ए हकीम से खबर ए फासिक़ का ग़ैर मोअतबर होना साबित है और इस पर हदीस भी गवाह है कि मुन्कर रावी का रिवायात बयान करना दुरूस्त नहीं। और वह हदीस वही है जो रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से शोहरत के साथ मन्कुल है कि जिसने इल्म के बावजुद झुटी हदीस को मेरी तरफ मंसूब किया वह झुटों में से एक झुटा है।

(इसके बाद ईमाम मुस्लिम अपनी बात के सबूतों के लिए हदीस लेकर आये है।

हदीस नं. 1: रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया मुझ पर झुट मत बांधों जो शख्स मेरी तरफ झुट मंसूब करेगा वह जहन्नम में दाखिल होगा।

हदीस नं. 6: रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया किसी शख्स के झुटा होने के लिए यही बात काफी है कि वह हर सुनी सुनाई बात को आगे बयान कर दे।

हदीस नं. 16: हज़रत अबु हुरैरा रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से मरवी है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमायाः “आखरी ज़माने में कुछ ऐसे (झुटें) ज़ाहिर होंगे जो तुम्हें ऐसी हदीसें सुनाऐंगे जो तुमने और तुम्हारे आबा ओ अजदाद ने भी नहीं सुनी होंगी। लिहाज़ा इनसे महफूज़ रहना कि कहीं तुम्हें गुमराही या फित्ने में मुब्तिला ना कर दें।

(इस हदीस से कोई यह ना समझे कि यह आज के ज़माने की बात हो रही है। यह ईमाम मुस्लिम के ज़माने की बात हो रही है। वह कह रहे है कि मैं इसी लिए तो यह कर रहा हूं क्योंकि लोग झुटी हदीस गढ़ रहे हैं। जैसे बाज़ लोग कहते है कि यह लोग नई-नई हदीस लाते है। अब अई कैसे? क्या सहीह बुखारी नई लिखी हुई किताब है? आप और अगर आपके अजदाद जाहिल रहे है तो इसकी वजह से यह लोग हम पर यह हदीस फिट कर रहे है। जैसे एक मुहावरा है कि चोर भी कहे चोर-चोर। तो अब मैं इब्राहीम अलैहिस्सलाम वाला जुमला बोलुंगा, “तुम और तुम्हारे आबा ओ अजदाद भी गुमराह थे।” अगर उन्होंने बुखारी नहीं पढ़ी जो कि 1200 साल पहले लिखी गई थी तो क्या यह हमारी गलती है, आपको अगर पता नहीं लगा कि सहीह अल बुखारी या सहीह मुस्लिम में नमाज़ का तरीका क्या है तो इसकी वजह से हमपर यह हदीस फिट करोगें। यह तो तब लगावगे जब हम कोई नई हदीस पेश करे जिसकी किताब व सुन्नत में कोई दलील नहीं है जैसे इनके कुछ मौलवीयों ने मिल कर एक हदीस बनाई है जो दुनिया की किसी हदीस की किताब में मौजूद नहीं है कि सहाबा और मुनाफिक़ नमाज़ में बुत रख कर आते थे इसलिए रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम रफअलयदैन करते थे। अगर यह हदीस दुनिया की किसी हदीस की किताब में लिखी हुई हो चाहे ज़ईफ सनद के साथ हो तो हम रफअलयदैन छोड़ देंगे। हदीस तो यह गढ़ रहे है।)

हदीस नं. 17: हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़िअल्लाहु तआला अन्हु से मरवी है कि, बाज़ वक्त शैतान इंसानी सूरत में किसी क़ौम के पास आकर झूटी हदीस बयान करता हे और जब लोगों में इंतशार वाक़ेअ हो जाता है तो इनमें से एक शख्स कहता है कि मैंने एक शख्स से यह हदीस सुनी है जिसका चेहरा तो मैं पहचानता हूं मगर इसका नाम नहीं जानता। (यानी वह आदमी जिसकी हदीस बयान की जा रही होती है दरअसल शैतान होता है।

(और इसीलिए असमा व रिजाल का इल्म क़ायम किया गया है कि पता चले कि हदीस का बयान करने वाला कौन है। ऐसा नहीं कि एक बुज़ुर्ग फरमाते है, हज़रत फरमाते है, सरकार फरमाते है, बस फरमाते ही है लेकिन फरमाने वाले का पता ही नहीं है।)

हदीस नं. 21: हज़रत मुजाहिद बयान फरमाते है हज़रत इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा ने फरमाया कि एक वह वक्त था जब हम किसी से यह सुनते कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया तो हमारी निगाहें दफतन बे-इख्तियार उसकी तरफ लग जाती थी और हम बड़े ग़ौर से उसकी हदीस सुनते थे लेकिन जबसे लोगों ने ज़ईफ और हर क़िस्म की आहदीस बयान करना शुरू कर दी, तो हम सिर्फ उसी हदीस को सुनते है, जिस हदीस को हम पहले से जानते हो (कि यह सहीह हदीस है)।

हदीस नं. 22: हज़रत इब्ने अबी मुलिकाह रहमतुल्लाह अलैय बयान फरमाते है मैंने हज़रत इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा को लिखा कि तेरे पास कुछ आहदीस लिखवा कर पौशिदा तौर पर भीजवा दे। तो हज़रत इब्ने अब्बास ने फरमाया कि मैं इस लड़के के लिये आहदीस के लिखे हुए ज़खिरे में से सहीह आहदीस को ही मुन्तखब कर के भेजुंगा। फिर हज़रत इब्ने अब्बास रज़िअल्लाहु तआला अन्हुमा ने सैयदना अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु के किये हुए फैसले मंगवाये और उनमें से बाज़ बातें लिखने लगे और बाज़ बातों को देख कर फरमाते जाते अल्लाह की क़सम! अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु ने यह फैसला नहीं किया था। अगर वह ऐसा करते तो खुद भी राहे-रास्त से भटक जाते (यानी बाज़ लोगों ने सैयदना अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु के फैसलों में तहरीफ कर दी थी)।

हदीस नं. 24: हज़रत अबु इस्हाक़ फरमाते है कि हज़रत अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु की वफात के बाद जब लोगों ने उनके किये हुए फैसलों को निकाल कर देखा, तो सैयदना अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु के साथियों में से एक साथी ने फरमाया अल्लाह तआला इनको (यानी तहरीफ करने वालों को) तबाह करें कि इन्होंने कैसे किमती इल्म को बिगाड़ डाला है (हज़रत अली रज़िअल्लाहु तआला अन्हु के फैसले बदल दिए)।

हदीस नं. 27: हज़रत इब्ने सिरीन ने फरमाया कि पहले लोग इस्नाक की तहक़ीक नहीं किया करते थे लेकिन जब दीन में बिदअत और फित्ने दाखिल हो गये तो लोगों ने कहा कि अपनी-अपनी सनद बयान करों, पस जिस हदीस की सनद में अहले सुन्नत रावी देखते तो हदीस कुबूल कर लेते और अगर सनद में अहले बिदअत को देखते तो हदीस छोड़ देते।

हदीस नं. 30: हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़कुवान रहमतुल्लाह अलैय अपने वालिद से रिवायत करते है कि मैंने मदीना शरीफ में ऐसे 100 आदमी पाए जिनके नेक सिरत होने पर सब मुत्तफिक़ थे मगर उन्हें हदीस रिवायत करने का अहल नहीं समझा जाता था, और उनकी हदीस कुबूल नहीं की जाती थी।

(यह इसलिए क्योंकि यह भोले-भाले है, बस हाथों पर तस्बीह फेरने वाले (मुहावरा), इनको कोई ज़ईफ हदीस भी बयान करेगा तो यह आकर सुना देंगे, खाली रोज़े-नमाज़ करने वाले (मुहावरा), जैसा कि आज के मौलवीयों ने ज़ईफ हदीस बयान करके भोले-भाले मुस्लिम जो कि उसूल ए हदीस के इल्म से नहा-वाक़िफ है उन्हें बेवकुफ बनाते है।)

हदीस नं. 32: हज़रत अब्दुल्लाह बिन उस्मान फरमाते है कि मैंने अब्दुल्लाह बिन मुबारक को फरमाते हुए सुना कि इस्नाद ए हदीस दीन का हिस्सा है। और अगर इस्नाद ना होते तो हर आदमी अपनी मर्जी का दीन बयान कर देता। अबु इस्हाक़ इब्राहीम बिन ईसा फरमाते है मैंने अब्दुल्लाह बिन मुबारक के सामने एक हदीस बयान की। हदीस सुन कर उन्होंने फरमाया यह हदीस किसकी रिवायत है, मैंने कहा साहाब बिन खाराश की। तो उन्होंने फरमाया कि वह सिक़ाह है। फिर उन्होंने कहा साहाब ने किससे रिवायत कि है? मैंने कहा हज्जाज बिन दिनार से। उन्होंने फरमाया वह भी सिक़ाह है। तो उन्होंने फरमाया कि हज्जाज ने किससे रिवायत की ? मैंने कहा कि वह कहता है कि रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया। तो हज़रत इब्ने मुबारक ने फरमाया। ऐ अबु इस्हाक़, हज्जाज और रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दर्मियान इतना तवील जंगल (यानी ज़माना) है, जिसको तय करते करते ऊंटों की गर्दने थक जाएगी (यानी यह हदीस तो मुन्क़ते है मतलब बिच के रावी नहीं है)।

(उनके कहने का मतलब है कि हज्जाज ने रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम से कैसे रिवायत कर दिया जबकि उनके बिच का ज़माना बहुत ज़्यादा है, बिच में से एक रावी साक़ित है और इसलिए यह हदीस क़ाबिल ए कुबूल नहीं है। हालांकि बंदा (ताबई) सिक़ाह हे लेकिन फिराी यह रिवायत नहीं क़ाबिल ए कुबूल है क्योंकि बिच के एक रावी साक़ित है।
हमारे मुआशरे में तो कहते है कि ईमाम अबु हनीफा रहमतुल्लाह अलैय ने फरमाया, फुला ने फरमाया। यह देखे अब्दुल्लाह बिन मुबारक जो ईमाम अबु हनीफा के शागिर्द है वह कह रहे है कि कई जंगल है बिच में रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तक पहुंचने के लिये। लेकिन यह जंगल तो बाज़ हनफी लोगों ने पार कर लिये है जो 400 साल थे और हिदाया लिख कर परे मारी और कहा कि ईमाम अबु हनीफा ने फरमाया जबकि इसकी कोई सनद ही नहीं है। ईमाम अबु हनीफा की हदीस लेकर आऐं हम मानेंगे लेकिन उनके ज़ाती अक़वाल तो हमारे लिए हुज्जत नहीं है।)

हदीस नं. 38: अब्दुल्लाह बिन मुबारक ने कहा कि मैंने सुफियान अल सौरी से कहा कि आप उबादा बिन कसीर के हालात से वाक़िफ है कि वह अजीब ओ ग़रीब आहदीस बयान करता है, अपनकी उसके मुताअल्लिक क्या राय है कि मैं लोगों को उससे आहदीस बयान करने से रोक दूं ? हज़रत सुफियान ने कहा क्यों नहीं। अब्दुल्लाह बिन मुबारक फरमाते है जिस मजलिस में मेरे सामने उबाद बिन कसीर का ज़िक्र आता तो मैं उसकी दीनदारी की तारीफ करता, लेकिन यह भी कह देता उसकी आहदीस ना लो। (क्योंकि इस फिल्ड के अंदर उनको कुछ पता नहीं है, भोले-भाले मुस्लिम है जैसे पहले ज़िक्र किया गया।)

हदीस नं. 40: हज़रत याहया बिन सईद बिन क़तान अपने बाप से रिवायत करते है कि हमने नेक लोगों से बढ़ कर किसी और को झुटी आहदीस बयान करते हुए नहीं पाया।

ईमाम मुस्लिम कहते है “झुटी हदीस उनकी ज़बानों से निकल जाती थी” (यानी वह लोग क़सदन झुट नहीं बोलते है)।

हदीस नं. 54: सुफियान बयान करते है कि लोग जाबिर बिन यज़ीद अल जाअफी से उसके अक़ीदे बातिला के इज़हार से पहले आहदीस बयान किया करते थे लेकिन जब उसने अपने बातिल अक़ीदे को ज़ाहिर कर दिया तो लोगों ने उसको हदीस में मशकुक करार दे दिया और उससे रिवायात लेना छोड़ दिया। जब सुफियान से कहा गया कि उसने किस बातिल अक़ीदे का इज़हार किया था ? तो सुफियान ने कहा रजाअत के अक़ीदे का।

(रजाअत का अक़ीदा क्या है वह आगे आ जाएगा)

हदीस नं. 55: जरह बिन मालिह कहते है कि मैंने जाबिर बिन यज़ीद अल जाअफी से सुना वह कहता था कि अबु जाफर (ईमाम अल आक़िर बिन अली बिन हुसैन रहमतुल्लाह अलैय) से रिवायत की गयी, रसूल अल्लाह सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की 70000 हदीस मेरे पास मौजुद है।

हदीस नं. 58: सुफियान बयान करते है कि मैंने सुना कि एक आदमी ने जाबिर अल जाअफी से अल्लाह के इस क़ौल की तफसीर पूछी:
तर्जुमा: (और इससे पहले तुम युसुफ के हक़ में जो ज़्यादतियां कर चुके हो), सो मैं इस सर-ज़मीन से हरगिज़ नहीं जाऊंगा तब तक मुझे मेरा बाप इजाज़त (ना) दे या मेरे लिये अल्लाह कोई फैसला फरमा दे, और वह सबसे बेहतर फैसला फरमाने वाला है।
सुरह युसुफ, आयत नं. 80.

तो जाबिर ने कहा कि इस आयत की तफसीर अभी ज़ाहिर नहीं हुई। सुफियान ने कहा कि उसने झुट बोला। हमनें कहा कि जाबिर की उससे क्या मुराद थी, तो सुफियान ने कहा कि राफज़ी यह कहते है कि हज़रत अली बादलों में है और उनकी औलाद में से किसी के साथ ना निकलेंगे यहां तक कि आसमान से हज़रत अली आवाज़ दे कि निकलों फलां के साथ। जाबिर इस आयत की झुटी तफसीर बयान करता (यानी रजाअत का बातिल अक़ीदा रखता था) हालांकि यह आयत तो युसुफ के भाईयों से मुताअल्लिक है।

हदीस नं. 64: हज़रत हम्माम ने कहा कि अबु दाऊद अल अमी हज़रत क़तादा के पास आया जब वह चला गया तो लोगों ने कहा कि इस शख्स का दावा है कि वह 18 बदरी सहाबा से मिला है। हज़रत क़तादा ने कहा कि यह ताऊन से पहले भिख मांगता था इसका रिचायात हदीस से कोई लगाव था ही नहीं और यह इस फन में गुफ्तगु करता है। अल्लाह की कसम हसन बसरी और सईद बिन मुसय्यब जैसे ताबईन ने भी सिवाए साअद बिन अबी वक़ास रज़िअल्लाहु तआला अन्हु के किसी भी दुसरे बदरी सहाबी से रिचायत नहीं की है।

हदीस नं. 79: अली बिन मशर का बयन हे कि मैंने और हमज़ा ने इब्ने अबी एैश से तकरीबन 1000 आहदीस का समाअ किया है (सुना है)। जगर जब मैं हमज़ा से मिला तो उन्होंने बताया कि मैंने नबी सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की ख्वाब में ज़ियारत की तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की सामने मैंने इब्ने अबी एैश की सुनी हुई आहदीस बयान की तो आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने उनमें से 5 या 6 के आलावा किसी भी हदीस के सहीह होने की तस्दीक नहीं की।

हदीस नं. 83: हज़रत अबु नईम से जब मआला बिन इरफान ने अबु वाईल के हवाले से बयान किया कि वह कहता है कि हमारे सामने अब्दुल्लाह बिन मसऊद जंग ए सिफ्फीन के मौक़े पर आए थे तो अबु नईम ने मआला से फरमाया क्या हज़रत इब्ने मसऊद (सिफ्फीन से 2 साल पहले) मर जाने के बाद दौबारा ज़िन्दा हो गये थे।

(जंग ए सिफ्फीन हुई है 37 या 35 हिजरी के अन्दर और अब्दुल्लाह बिन मसऊद 33 हिजरी में फौत हो गये थे। तो उनका कहना है कि क्या अब्दुल्लाह बिन मसऊद अपनी कब्र से बाहर निकल आये थे और हदीस बयान कर के चले गये? शुकर है कि वहां कोई सुफी नहीं बैठा था वरना वह कहता कि यह बुज़ुर्ग की गुस्ताखी है, बुज़ुर्ग तो निकल ही सकते है कब्र से बाहर। इसका मतलब यह है कि मुहद्दिसीन की नज़र में कही नहीं है कि कोई कब्र से बाहर निकल कर हदीस बयान कर सकता है, बल्कि नक्शबंदी सिलसिले ने कहा है। यह इन्हीं के मुआमले में ऐसे सिलसिले चलते है। मुहद्दिसीन तो सहाबी को नहीं मानते कि वह कब्र से निकल कर आए फिर बुज़ुर्ग कैसे निकल के आकर बैअत करेंगे।)

हदीस नं. 84: अफ्फान बिन मुस्लिम फरमाते है कि हम इस्माईल की मजलिस में थे कि एक शख्स ने किसी शख्स से हदीस बयान की तो मैंने कहा कि वह तो ग़ैर-मोअतबर है तो एक शख्स कहने लगा कि ऐ अफ्फान तुमने उसकी ग़िबत की। इसपर इस्माईल ने कहा इसने ग़िबत नहीं की (और यह वाजिब है) बल्कि हुक्म बयान किया कि वह हदीस में मोअतबर नहीं।

ईमाम मुस्लिम फरमाते है कि: हमने हदीस के रावीयों के बारे में अहले इल्म के कलाम से ज़ईफ रावीयों की तफसील ज़िक्र की है और उनकी रिवायतों के जिन उयूब और नाक़िस का ज़िक्र किया है वह साहिब ए फरासत के लिये काफी है। अगर वह तमाम तन्क़ीदी अक़वाल नक़ल किये जाते जो रावीयाने हदीस के मुताअल्लिक उलमा ए हदीस ने बयान किये है, तो यह किताब बहुत ही तवील (लम्बी) हो जाती। अइम्मा ए हदीस ने रावीयों के एैब खोल देना ज़रूरी समझा और जब उनसे इसके मुताअल्लिक पूछा गया तो उन्होंने इस बात के जवाज़ का फतवा भी दिया और यह बड़ा ही अहम काम है क्योंकि दीन की बात जब नकल की जायेगी तो वह (3) आहदीस (से खाली नहीं होगी):

1. किसी अम्र के हलाल होने के लिए या हराम होने के लिए होगी। या फिर वह हदीस:
2. किसी अम्र या नहीं (यानी नेक बात का हुक्म और बुरी बात की मुमानियत) के लिए होगी। या फिर वह हदीस:
3. किसी तरग़ीब या तरहीब (यानी फज़ाईल और वईद) के लिए होगी।

(इससे पता चला कि ईमाम मुस्लिम का कहना है कि इन तीनों मुआमलों में आहदीस सहीह होनी चाहिए। और यह भी पता चला कि फज़ाईल के अंदर भी ज़ईफ हदीस ईमाम मुस्लिम के लिए क़ाबिल ए कुबूल नहीं।)

जब हदीस का कोई रावी खुद सच्चा और अमानतदार ना हो और वह फिर वह रिवायत भी बयान करे और बाद वाले लोग उस रावी की खराबी के बावजुद दुसरे लोगों को, जो इसको ग़ैर सिक़ाह के तौर पर ना जानते हो उस रावी की कोई रिवायत बयान कर दे और उसके अहवाल पर कोई तन्क़ीद और तबसरा ना करे, तो ऐसे उलमा दरअसल मुस्लिम आवामुन्नास के साथ ख्यानत और धोका करने वाले शुमार होंगे। क्योंकि उन आहदीस में बहुत सी आहदीस मौज़ु और मनघडंत होगी और आवाम की अक्सरीयत रावीयों के अहवाल से नावाक़िफियत की बिना पर उन हदीस पर अमल शुरू कर देगी। तो इस तमाम का गुनाह उस रावी पर होगा जिसने हदीस बयान की होगी। 
सहीह आहदीस जिनको मोअतबर सिक़ाह रावियों ने बयान किया है इस करद कसरत के साथ मौजुद है कि उनकी मौजुदगी में इन बातिल और मनघड़न्त रिवायात की मुतलक़न ज़रूरत ही बाकी नहीं रहती।

इस तहकीक के बाद मैं नहीं यह समझता कि कोई भी सिक़ाह अपनी किताब में मजहूल, ग़ैर सिक़ाह और ग़ैर मोअतबर रावियों की आहदीस नक़ल करेगा खुसुसन जबकि वह सनद आहदीस से वाक़िफ भी हो सिवाए उस शख्स के जो लोगों के नज़दीक अपना कसरत ए इल्म साबित करना चाहे और मक़सद के हुसूल के लिए वह बातिल और मनघड़न्त इस्नाद के साथ भी आहदीस पेश करने में ज़रा ख़ौफ और हिचकिचाहट महसुस ना करें, ताकि लोग उसके वसीअ इल्म और ज़्यादा रिवायात जमा करने पर उसे दाद दे। लेकिन जो शख्स भी ऐसे बातिल तरीके को इख्तियार करेगा, तो अहले इल्म और अक्लमंद लोगों में ऐसे आलिम की कोई वक़त और इज़्ज़त बाकी ना रहेगी, और ऐसा शख्स आलिम कहलवाने की बजाए जाहिल कहलवाने का ज़्यादा हक़दार होगा।

(अब दो बातें लिख कर ईमाम मुस्लिम अपने मुक़द्दमे का इख्तताम करते है)

1. मुरसल (यानी ताबईल की आहदीस और दिगर मुन्क़ते रिवायात) हमारे और अहले इल्म मुहद्दिसीन के क़ौल के मुताबिक हुज्जत व दलील नहीं है।
2. जो रावी तदलीस करने में मशहूर हो उसके बारे में मुहद्दिसीन यह तहकीक ज़रूर करते है कि वह जिस शेख की तरफ रिवायत की निस्बत कर रहा है फिल वक़्ेह उस रावी ने उस शेख से हदीस सुनी है या सिर्फ उसकी तरफ तदलीस की निस्बत कर दी है जबकि हक़ीक़त में वह हदीस किसी और से सुनी है। और उस वक्त यह तहक़ीक करने का मकसद तदलीस के मर्ज़ को दुर करना होता है ताकि अगर वक़ई उस रावी ने सनद में तदलीस की तो उस सनद का एैब ज़ाहिर हो जाए। लेकिन जो रावी मुदल्लिस ना हो तो अईम्मा ए हदीस उस रावी की समा की तहक़ीक नहीं करते।

(मतलब जो रावी तदलीस करते है उनकी “अन” वाली रिवायत क़ुबुल नहीं होगी जबतक समाअ की तशरीह ना मिले।

(फिर इसके बाद) ईमाम अबुल हुसैन मुस्लिम बिन हज्जाज रहमतुल्लाह अलैय हम्दो सलात के साथ सहीह मुस्लिम का मुक़द्दमा मुक़म्मल करते है।)

•٠•●●•٠•