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इस्लाम में फिरका वारियत नहीं - डाॅ. फरहत हाशमी


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इस निबन्ध में हम डाॅ. फरहत हाशमी के चंद किमती नसीहतों को आपसे बांटना चाहेंगे।

अल्लाह पाक फरमाते है,

“ऐ मुसलमानो! तुम सब कहों कि हम अल्लाह पर ईमान लाये और उस चीज़ पर भी जो हमारी तरफ उतारी गयी और जो चीज़ इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याकुब अलैहिस्सलाम और उनकी औलाद पर उतारी गयी, और जो कुछ अल्लाह की जानिब से मूसा और ईसा अलैहिस्सलाम और दुसरे अम्बियां को दिये गये, हम उनमें से किसी के दर्मियान फर्क़ नहीं करते, हम अल्लाह के फरमाबरदार है।

अगर वह तुम जैसा ईमान लाये, तो हिदायत पाये, और अगर मुंह मोड़े तो वह सरीह इख्तलाफ में है, अल्लाह उनसे अन्करीब आपकी किफायत करेगा, और वह खूब सुनने और जानने वाला है।”

सुरह बक़रा, आयत नं. 136-137

डाॅ. फरहत हाशमी इस आयत की तफसीर में फरमाती है,

“हमारे यहां क्या है? बस हम सिर्फ अपने उस्ताद की इज़्ज़त जानते है, अपने आलिम की, अपने गिरोह वालों की, अपने ईमाम की, बस! कितनी तंग-नज़री है यह! इसी लिए तो सिर्फ उसके नाम से पहचाने जाना चाहते है। अगर (वह) कहे भी कि नहीं-नहीं ऐसी बात नहीं। ऐसी (बात) नहीं तो क्या है कि तुम हर वक्त इसी चक्कर में पड़े हुए हो कि अपने ईमाम और अपने बड़े (उलमा) को बड़ा साबित कर सकों दुसरों पर और सारा ज़ोर तुम्हारा इसी पर हो, सारे दलाईल तुम्हारे इसी के लिए हो कि सिर्फ जिससे तुम वाबस्ता (connected) हो उसकी superiority तुम क़ायम कर सकों बाकी सब पर। इससे तो कभी दीन में वुसअत नहीं आ सकती, यही तो शख्सियत-परस्ती है।

जहां हक़ हो वहां से ले लो, जहां अच्छी बात हो उठा लो। जो अच्छा काम कर रहा हो appreciate करों, जहां से फैज़ पहुंचे शुक्र-गुज़ार हो। और सबका अहतराम करों, यही हमें सिखाया गया لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ اَحَدٍ مِّنۡهُمۡ 
(हम उनमें से किसी के दर्मियान फर्क़ नहीं करते)।
हालांकि अल्लाह तआला ने खुद बाज़ अम्बियां को बाज़ पर फज़ीलत दी है जैसा कि कुरआन ए पाक में तीसरे सिपारे की इब्तिदा में आता है 

تِلۡكَ الرُّسُلُ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلٰى بَعۡضٍ‌ۘ (यह रसूल, इनमें से हमने बाज़ को बाज़ पर फज़ीलत दी)

مِنۡهُمۡ مَّنۡ كَلَّمَ اللّٰهُ‌ (बाज़ से कलाम किया है),

وَرَفَعَ بَعۡضَهُمۡ دَرَجٰتٍ‌ؕ (बाज़ को दरजात में बुलन्दी दी है)।

लेकिन हमें क्या तमीज़ सिखायी गई ? तुम मत comparison करों, لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ اَحَدٍ مِّنۡهُمۡ क्यों? इसलिए कि अगर एक शख्स यह कहें कि फुला नबी फुला नबी से बढ़ कर है, जैसा कि बाज़ औक़ात लोगों में हुआ भी, तो आपने उस चीज़ से रोक दिया सब अम्बियां की इज़्ज़त ज़रूरी है। हालांकि किसी के पास किताब आयी, किसी के पास सहीफा आया।

देखें इब्राहीम अलैहिस्सलाम की किताब का ज़िक्र नहीं मिलता, सोहफे इब्राहीम, सहीफे! यानी छोटी किताबें! किताब बड़ी चीज़ है सहीफा उससे मुख्तलिफ चीज़ है या छोटी चीज़ है।

बाज़ अम्बियां से अल्लाह तआला ने कलाम किया, लेकिन सब से नहीं किया। ईसा अलैहिस्सलाम को कुछ और खसायस दिये गये। सुलैमान अलैहिस्सलाम की बादशाहत और नबुव्‍वत की कुछ और खुसुसियात थी दाऊद अलैहिस्सलाम को जिस्मानी और माली कुव्वत बे-पनाह दी गई। हर नबी की कोई ना कोई खुसुसियत है।

लेकिन हमें क्या कहा गया है?

हम उनके दर्मियान फर्क़ नहीं करते। हम सबको नबी मानते है, सबको एहतराम करते है, सबकी तालीमात को बरहक़ समझते है कि उन्होंने हक़ पहुंचाया बन्दों को।

इसी तरह उसके बाद क्या है, जितने भी उलेमा ए किराम है, जो भी दीन का काम करने वाले है, हम सब की इज़्ज़त करते है, (चाहे वह) किसी भी school of though से हो।

हां! क्योंकि अम्बियां तो ग़लती नहीं करते, (वह) मासूम होते है। लेकिन आम उलेमा जो होते है, इन्सान जो होते है, उनसे ग़लतियां भी हो जाती है। तो जहां वह ग़लती करें, बस उस ग़लती को हम नहीं मानते बाकी जो उनकी अच्छी बात है वह सब मानते है, सबकी इज़्ज़त करते है।
इल्ला यह कि कोई शख्स इस्लाम के दायरे से निकल कर कुफ्र की तरफ चला जाये। तो वह तो एक अलग किस्सा हो जाता है।

लेकिन जो शख्स मुसलमान है, दीन की खिदमत कर रहा है, अगर उससे कोई कमी कोताही हो जाती है, आपको मालूम है कि उमुमन कमी-कोताही कहां हुई? इज्तेहादी मुआमलात में। इज्तेहादी कहां?
जब कुरआन और सुन्नत का वाज़ेह हुक्म नहीं था, उलेमा ने कोशिश कर के मसाईल का हल ढुंढा। किसी ने एक हल बताया किसी ने दुसरा बताया। अब क्या हुआ? एक की बात दुसरों से मुख्तलिफ हो गयी।

आप देखें कि कोशिश करने के बाद अगर कोई आलिम एक मसअला बताता है, (और) अगर उससे ग़लती भी हो जाती हे तो आपको पता है (कि) उस ग़लती पर भी उसको अज्र है, हदीस में यह बात आती है। अल्लाह तआला तो उसको उसकी ग़लती पर अज्र दे रहा है। और हम उसको मुआफ नहीं कर रहे है और उसके खिलाफ तूफान उठाये हुए है और उसको negate कर रहे है, degrade कर रहे है।

हमें किसने हक़ दिया है यह सब कुछ करने का। हमें किसने चुन कर इस मसनद पर बिठाया हे कि तुम लोगों के बारे में फतवे दो। नहीं! हमारा यह काम नहीं (है)।
हमारा काम क्या है?
जो भी कोई अच्छी बात कर रहा है वह सब अच्छे है। इल्ला यह कि अगर कोई बात जो दुरूस्त नहीं कर रहा तो बस हम वह नहीं लेंगे।

आप देखें, मिसाल के तौर पर पर आप (बाज़ार से) चावल (rice) खरीद के लाती है या टमाटर खरीद कर लाती है। आप जब उसको काटते है तो उसका एक हिस्सा कुछ खराब निकल जाता है।
(तो क्या) आप सारा टमाटर (dust bin में) फेंक देते है? करते है ऐसा ? नहीं!!
क्या करते है?
जो खराब हिस्सा होता है उसको काट कर अलग रख देते है, बाकी को धो कर इस्तेमाल करते है। और ऐसा ही होना चाहिए ना? अगर कोई शख्स एक छोटी सी दाग़ की बिना पर सारा fruit dust bin में उठा कर फेंक दे तो आप कहेंगी इसका दिमाग चला गया है। 
लेकिन दीन के मुआमले में हम ऐसी ही हिमाकतेंं करते है। अगर किसी से एक ग़लती हो गई, क्योंकि वह इन्सान है ना? तो उस बिना पर उसकी हर बात बुरी हो गई।
हर चिज़ dust bin में चली गई, उसको तो नाम भी ना लो। क्या वह तुम्हारा मुसलमान भाई नहीं?

कुरआन उस दिल में सहीह तरह आता है जिस दिल में वुसअत आती है। नफरतें निकलती है, तज़किया होता है, दिल चमकते है, हसद, बुग़ज़, मैल से पाक होते है, फिर अल्लाह की मारिफत आती है, फिर हिक्मत इलक़ा होती है, फिर दीन की बरकते होती है फिर इस्लाम का पैग़ाम दुनिया में आम होता है। आज क्यों आम नहीं हो रहा? हम तो अपने घर में अजनबी हो गये (है)। मुसलमान मुल्क, इस्लामी जमहूरीयत, पाकिस्तान में इस्लाम अजनबी होता जा रहा है। पढ़े-लिखे लोगों में, अनपढ़ लोगों में, क्यों हुआ यह? कभी सोचा आपने? इन नफरतों की वजह से हुआ, कि जब कोई दीन का नाम लेता है, सब हाथ धोके उसके पीछे पड़ जाते है । अगर वाक़ई sincerely हम दीन के खादिम बनना चाहते है तो हमें अपना मिजाज़ बदलना होगा। और मिजाज़ इस कुरआन के मुताबिक।

और हम किसी नबी की तरफ नहीं मंसूब कर रहे अपने आपको, किसी आलीम की तरफ नहीं! किसी ईमाम की तरफ नहीं! “وَّنَحۡنُ لَهٗ مُسۡلِمُوۡنَ” अल्लाह की तरफ, उसके मुसलमान, उसके फरमाबरदार, उसके ताबेदार। (अल्लाह पाक फरमाते है)

“अगर वह तुम जैसा ईमान लाये, तो हिदायत पाये, और अगर मुंह मोड़े तो वह सरीह इख्तलाफ में है, अल्लाह उनसे अन्करीब आपकी किफायत करेगा, और वह खूब सुनने और जानने वाला है।” 
सुरह बक़रा, अयत 137.

यानी इब्तिदाई तौर पर जब कुरआन नाज़िल हो रहा था तो खिताब किसको था? सहाबा ए कराम को था, उसके बाद हमसे भी है लेकिन सहाबा ए कराम को एक Model बनाया गया है और अगर बाकी दुनिया के लोग ईमान लाये,"بِمِثۡلِ مَآ اٰمَنۡتُمۡ" जैसा ईमान तुम लाये हो, कैसा ईमान था उनका?
"قُوۡلُوۡٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ " से लेकर end तक "وَنَحۡنُ لَهٗ مُسۡلِمُوۡنَ". 
जो इस तरीके का ईमान लाये, फिर वह हिदायत-याफ्ता हुए।

सहाबा ए कराम जैसा ईमान, मुझे ज़रा आप बताइये सहाबा ए कराम किस गिराह में से थे? क्या मसलक था उनका? वह हनफी थे या शाफई थे या मालिकी थे ? वह कौन थे ?
वह बस मुसलमान थे!
उनको कौनसा sect था वह सुन्नी थे या शिया थे? मुसलमान थे! फरमाया ऐसा ही ईमान अगर बाकी लोग लाये, (तो) यह है हिदायत। 
और अगर लोग मुंह मोड़ जाये, ऐसा ईमान ना लाये, इस बात से इत्तिफाक ना करें, इससे agree ना करें और अपने आपको गिरोहों में बांट कर रखें, तो असल मसअला फिर क्या है? माज़रा क्या है? वह दरअसल ज़िद में मुब्तिला है, मुखालिफत का शिकार है, अलग रहना चाहते है। खराबी फिर वहां है, तुममें नहीं, तुम इत्मिनान रखों कि जो कर रहे हो दुरूस्त कर रहे हो, बिगाड़ है तो फिर उनमें है जो इस तरीके पर ना आये।” End quote.


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अल्लाह हमें इन किमती नसीहतों पर अमल करने की तौफीक अता करे। आमीन।